Sudhanshu Mishra
1 min readJan 23, 2020

एक पतझड़ बाहर है तो एक अंदर।

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पत्ता पत्ता हिल रहा है , रोम रोम सिहर उठा है ।

ठंडी हवा का झोंका है या देश जैसे बिखर रहा है

एक पतझड़ बाहर है तो एक अंदर ।

बाहर आँधी है तो अंदर समंदर ।

किसे पुकारूँ किसे बुलाऊँ किसको आवाज़ दूँ

यहाँ सब इधर उधर भटक रहे हैं ।

कोई आज़ादी माँग रहा कोई हिंदुत्व को नाप रहा

कोई रेजिस्टर बना रहा कोईं काग़ज़ छिपा रहा

कोई बस जला रहा कोई लाठी गोली

कोई मातम मना रहा कोई खून की होली

दिशाहीन हैं देश के बच्चे, स्वार्थी नेता उन्हें हांक रहा

राख हो गए हज़ारों जवान, नेता फिर भी आग लगा रहा

आ गया फिर चुनाव का सावन

वोट माँगने नेता निकले धूल उड़ाते बैंड बजाते

पाँच साल की कुर्सी लेकर

सात पुश्त की लाइफ़ बनाने

हमको रिझाकर मूर्ख बनाकर

नए नए वादे सुनाकर

खुद को गिराकर हमें उठाकर

हाथ जोड़कर नेता निकले

ग़ायब हो जाएँगे बस दस दिन में

इनका सावन इनके घर में

रह जाएगा अपना पतझड़

कुछ बाहर कुछ घर के अंदर

फिर मिलेंगे पाँच साल में

तब तक हम फिर बाट जोहेंगे

देश वहीं का वहीं रहेगा

कुछ बिखरा कुछ अस्त व्यस्त सा ।

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Sudhanshu Mishra
Sudhanshu Mishra

Written by Sudhanshu Mishra

Coach. Corporate Slave. Blogs on Self-help/Self development, Indian Politics, General interest.

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